yatra

Sunday, August 31, 2008

pawan

pawan ,

आज से करीबन दस साल पहले एक महिला मित्र ने मेरे लिए एक पोएम लिखी थी पता नहीं आज वो कहाँ हैं .....लेकिन उन लाइनों में मेरे प्रति उनका उत्कट विश्वाश झलकता है ..आज भी मैं उस बात के लिए ..मै एक अहसास जो ..अव्याकृत है ..रखता हूँ और शायद उनका मेरे प्रति ये आग्रह ....मैं समझता हूँ ....पूरा सच नहीं कहता ...और मैं उस पर शायद ,आधा अधुरा भी, खरा नहीं उतरा....लेकिन ..पवन आज जब तुम मसूरी के रस्ते में होगे तो वे ही लाइने मैं तुम्हे सुनाना चाहता हूँ ...मैं तुम्हे सुनाना चाहता हूँ ॥(.. maaf करना दे नहीं सकता )..पर उन लाइनों पर तुम खरे उतरोगे...क्यूंकि....मेरा manna hai

जब जीवन कट गया रात...

ही रात में ...तो ...

तो देखता हूँ ...

भोर होने को है ...तुम्हारी देहलीज पर...

हो सके तो वरन करलो

मेरे ऐसे स्वप्नों को ....

जो पुरे हों सकें तुम्हारे जीवन के ...

प्रभात में ....

ये तो मैं कह रहा हूँ और इसीलिए अपने मित्र की वो लाइने मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ-

तुम को देख कर /मुझे सूझती है

सागर की एक उत्ताल तरंग ,

बाँध सकेगा न जिसे कोई

जो सदा ही बढेगी आगे

चीर कर अन्नंत जलराशि .

तुम्हें देखकर /मुझे सूझता है

प्रथ्वी के आँचल मैं ऊँघता

एक अंकुर , kun bhunata sa ...

ऊँचे गगन को जो चूमेगा

गहरे कहीं धरती से जुड़ कर भी.... ।

खुशियाँ tumhara साथ न chhoden esi दुआ के साथ ...

sumati

Sunday, August 24, 2008

takkila

मैं मैकदे की राह से हो कर गुज़र गया ,
वरना सफर हयात का काफी तवील था ।

यूँ तो मैं पीता नहीं हूँ लेकिन यकीन के साथ ,और बड़े इत्मिनान के साथ भी , कह सकता हूँ की मुझे नशा हर वक्त रहता है और इसी नशे मैं जिंदगी का लंबा सफर कट ता जा रहा है ...नशा राज भाटिया साहब के भाई के पड़ोसी को भी था वो ये की विदेसी शराब पियें गे तो शायद विदेशी नशा हो .....और हुर्रें भी विदेशी ही मिलेंगी उस नशे मैं ...सो वो विदेशी शराब के चक्कर मैं कई चक्कर भाटिया साहब के भाई क यहाँ लगा आए ...हम अपने ही चक्कर काटे पड़े हैं हम पर हमारा ही नशा चढा हुआ है ....और ये भूल गए की ...
चमन मैं मुख्तलिफ रंगों से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं .....तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो

तो इस नशे का इलाज किसी शफा मैं नहीं है किसी दुआ मैं नहीं है ...हर इंशान की फितरत ये है की उसने ही आसमान मैं छेद करना जाना है बाकि सब तो राम भरोसे चल रहा है । तो अपने होने का नशा मुझ पर भी तारी है ..इसी नशे मैं मैंने इतनी यात्रा कर डाली है और पता नहीं कितनी करनी है पर इस नशे से मेरा दिल घबराता है ..
takkila पीना कहीं बेहतर है वो नशा मुश्तकिल नहीं है .... आज की बहकी बहकी बातों के लिए दोस्त माफ़ करदेना शायद होश मैं आगया था जो ये बात कह बैठा कल सुबह सोकर उठूँगा तो फ़िर नशे मैं दुनिया JEETNE के प्लान नाश्ते की MAEJ पर बैठ कर बनाऊंगा और शायद आप भी नशे मैं उस वक्त होंगे aur दुनिया जीतने
निकलने को होंगे.. aayen तब तक होश की बात सोचें....अपने से बहार की सोचें

YATRI नशे मैं नहीं है (जोर देकर कहना है )

Sunday, August 17, 2008

दो दिन .....

दो दिन गुज़रे ... हम ऐतबार मैं थे
...किसी सबब से दुनिया की सब balayen
अपने अपने दडबों को कूच करगयी हैं...और इत्मिनान इस बात का है की हम से साथ चलने ki जिद्द भी नहीं की ....वे यूँ गयीं की लगता था पलट कर मुंह न देखेंगी हमारा .लेकिन ..फ़राज़ का वो शेर यहाँ सटीक लगता है.....

रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ,
आ फिर से मुझे छोड़कर जाने के लिए आ ।
......हम उन्हें ख़ुद सदा देते हैं
(और फिर ठीक वैसा ही लगने लगा जैसा फ़राज़ ने इसी ग़ज़ल के अगले शेर मैं लिखा है.....)

एक उम्र से हूँ लज्ज़ते-गिरया से भी महरूम,
ए राहते- जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ ।

तसल्ली बख्श उम्र का दौर बस कभी का guzar चुका लगता है ....भाग दौड़ की इस ज़िन्दगी मैं दो दिन निकल भी आयें तो फिर फितरत ही ऐसे बनगई लगती है की वापस फिर उसी ज़िन्दगी के भाड की तड़प सताने लगती है जहाँ बालू की तपिश मुझे चने की तरह उछाल-२ के भाड़ से बाहर भागने को मजबूर करती है और मेरी किस्मत ,मेरी नियति फिर उसी बालू mai पटक देती है । १४,१५ मेरे hisab से कुछ behtar दिन thai .....खाने और sone को rasm adaygi की तरह न करके अपने hissab से किया .कुछ aalu जो uble हुए frij मैं पड़े thai और khatta mattha जो almost bekar ही था pattni जी ने मेरे disposal per छोड़ दिए .मैंने matthe के aalu बनाये और बड़े प्रेम से खाए भी...अगले दिन देर से jage होने के bavazud देर तक बिस्तर per पड़ा रहा.edhar से udhar lotta रहा। अगले दिन कुछ मित्रों से mulakat ,जो zindgi के vyapar मैं sundry creditors की तरह हो गए हैं , की । बस फिर vahi ..........kashmakash भरी ....per अभी तो लम्बी duri tai होनी है sazo saman की hifazat मैं sara वक्त jaya kardene मैं hoshiyari कहाँ manta हूँ .....per होता jaya ही है। मेरे अपने nazariye से बिल्कुल beza hai

ज़िन्दगी यूँ तो हमेशा से pareshan si थी,
अब तो हर साँस girabar हुई jati है ।

बस दो दिन ही guzre हैं की लगता है की वो... "दो दिन" meelon pichhe chhut गए हों ojhal होते दिखाई daete
हैं......

yatra के padav ...अभी और भी

Saturday, August 9, 2008

खुराफात का दफ्तर

शायद ये आप की नज़र मैं हमारी दिक्कत ही तो है जो मिटने मिटाने की बहस से हम आगे की नहीं सोच पाते hain . par शायर कहता है-
" वो अलग बाँध के रखा है ,जो माल खास है "
मैं वोही पोटली यहाँ खोल के बैठा हूँ । ये खास है । मैं खुश हूँ जिन्होंने मेरे दुख, दिक्कत तकलीफें बाँटनी हैं वो यहाँ आते है बार -बार .लगातार । जिन्हें मुझ से सुख चाहिए उनको इन तकलीफों से न सरोकार है न होना चाहिए न उन्हें मैंने यहाँ कभी बुलाया न यहाँ का पता दिया । मेरे चंद अपने जो इस यात्रा के दौरान बनगए हैं मेरे लिए उनसे बात करना ,मेरी यात्रा के मुक्कमल होने जैसा है .रही बात दुःख से सुख की या बिगड़ने के बाद बनने की तो जो मुझ से बन pada है वो दुनिया देख रही है .और जो मैं बिगाड़ के बैठा हूँ उसे तुम ही देखो....... मेरे साथी यात्री ।

इस खुराफात के दफ्तर मैं हर किसी की दाखिली पर मुझे गुरेज़ होगा

हो सके तो किसी अजनबी को यहाँ का पता भी न देना ....मैं क्या कहूँ ....बस इतना ही
"कोई चुटकी सी कलेजे मैं लिए जाता है ,
हम तेरी याद से गाफ़िल नहीं होने पाते ।

ठीक है न दोस्त ग़लत हो तो फ़िर टोंको ।
सुमति

Thursday, August 7, 2008

पुनश्च तोरा-डोरा मैं

आज फ़िर रात ३ बजे ये अचानक चलदेना पड़ा रास्ता कठिन था पर बैचेंनियाँ कदम टिकने कहाँ देती हैं .३.३४० पर एक कप चाय पीने के बाद यहाँ आगया इधर उधर करने के बाद बस लिख ने बैठ गया पौ फटने तक लिखते ही रहने का इरादा है या यूँ कहें की सफर जारी रहेगा । कोई कैसे समझ ये जो मुझे होने नही देती वो तलाश की बेकरारी क्या है ....मैं तालिबान नहीं बनानेवाल ....पर अपनी दुनिया का लादेन जरुर हूँ ...जैसे चाहूँ वैसे बरबाद करने का जूनून हावी रहता है ...बर्बाद होने का भी॥ सुबह हो रही है ४.४५ हो चुके हैं दुनिया जगे ...लादेन को फ़िर पेन शर्ट पहनकर आदमी बन के दुनिया के बीच आना होगा ......इस लादेन की ये भी तो एक दिक्कत है ......वो लादेन किरदार तो एक ही है ......यहाँ कितने किरदारों में, मैं बनता हूँ

मैं सोभी जाऊँ रातों मैं

लेकिन तू है की मुझ मैं सोता नहीं है

Monday, August 4, 2008

खुन्नस

आज झरस मैं दिन भर एक जगह बैठे बैठे यात्रा की ,और बस कुछ नहीं... कभी -कभी मन अपने आप से पैरों मैं ऐसी बेडियाँ बाँध लेता है की उनका वज़न देख कर ही पैर उठाने के हौसले पस्त हो जाते हैं .ये मेरा मन ख़ुद से करता है .कोई और कहे तो शायद ..कभी न माने ...बस ..आज भी यही हुआ सुबह उठकर मन ने विरोध कर दिया की आज नहाना धोना नही है और ये क्या रोज़ रोज़ के अहदे सितम हैं की हमें कुल्ला करना ही है ,नही करते जाईये हम बास मारेंगे आपकी दस बार फंसे तो हम तक आइये ...हम अपने आप से बरहम है ...जरुरी नही की हम इसका तस्किरा करें...हम ने कहा न आज दुनिया पे एहसान करने का दिल नहीं है ....तो इस झरस में कलम से सफर शुरू करदिया जो दातुन से होता था ....बज़ाहिर है की ये सफर इस से ज्यादा तल्ख़ क्या होसकता था---

निगाहे प्यार से देख तुम्हें दिलकश नजारों ने

मुझे नफरत से देखा आसमान के सारे तारों ने।

हजारों अफ्ताबों से तेरा रोशन जहान होगा ,

यहाँ बज्म-ऐ-चिरागां फूँक डाली है हमारों ने ।

बहुत ही मुस्तकिल अंदाज़ में हम क़त्ल होते हैं,

कहाँ गर्दन बचा पाई मोहब्बत के शिकारों ने।

तुम्हारा नाम लेकर आसमान तारीख गढ़ता है ,

दिए हैं हम को तो बस क़र्ज़ मांझी के उधारों ने ।

तुम्हारी नज़्र के काबिल कहाँ वो चार लम्हे thae ,

chhupa rakkha hai अरसे से जिन्हें दिल की दरारों ने।

आज बस इतनी ही खुन्नस है...और आप अपनी खुन्नस निकालना चाहें तो ऊपर लिखी लाइनों पे निकालें तब तक मैं कुल्ला करके आता हूँ॥

यात्रा अमर रहे।

भले यात्री जान से जाए ..

Friday, August 1, 2008

अपने रंग गंवाए बिन ..

क्या कभी ऐसा भी होता है जब हम अपनी पहचान दूसरे मैं जज्ब करके मिटा देते हैं और उसे ही अपनी मंजिल मानकर जिंदगी का सफर पूरा करते हैं ......उसी के साथ .......ये दूसरा कोई जिस्म भी हो सकता है ..और मकसद भी ।
....(मैं यहाँ आकर कुछ रूमानी हो जाऊँ तो क्या कोई ऐतराज़ होगा ...शायद ऐतराजों को दर किनार करने ही तो यहाँ हम आते हैं वरना हमारी शोहरत ,कामयाबी,और अच्छाइयों पर तो हक जताने वाले कई है....... और हमारी हसरतों पे ऐतराज़ रखने वाले ....और भी कई । मैं ऐसे फलसफों पर सोचता हूँ जिन पर वहां नहीं सोच जासकता जहाँ मैं रहता हूँ। जहाँ देह रहती है ...रूह पर बोझ बनकर )...
मेरे रंग मैं घुल जाओ....॥ हरहाल में तुम तुम ही रहो ...मैं ,मैं भी रहूँ ..........क्या इस तरह मुमकिन है...... रामानुजम के विशिष्ट अद्वैत वाद की तरह ....मैं डुबाता हूँ अपने आप को उस में जिसे मैं पाना चाहता हूँ बचपन से भी यही फार्मूला दिया गया है ..परकुछ रह जाता है जिसे मैं खोता हूँ और वो मुझे खोता है .... मेरा अपना aksh ....duniya dari के ghal male में ......जिसे pane के लिए यहाँ आता हूँ .....और पाता भी हूँ ....कुछ दलीलें ... मेरे टारगेट्स और मेरी ख्वाइशें कैसे हम होंगे ..........है कोई .....रास्ता......

सफर को तैयार

सुमति