yatra

Friday, August 1, 2008

अपने रंग गंवाए बिन ..

क्या कभी ऐसा भी होता है जब हम अपनी पहचान दूसरे मैं जज्ब करके मिटा देते हैं और उसे ही अपनी मंजिल मानकर जिंदगी का सफर पूरा करते हैं ......उसी के साथ .......ये दूसरा कोई जिस्म भी हो सकता है ..और मकसद भी ।
....(मैं यहाँ आकर कुछ रूमानी हो जाऊँ तो क्या कोई ऐतराज़ होगा ...शायद ऐतराजों को दर किनार करने ही तो यहाँ हम आते हैं वरना हमारी शोहरत ,कामयाबी,और अच्छाइयों पर तो हक जताने वाले कई है....... और हमारी हसरतों पे ऐतराज़ रखने वाले ....और भी कई । मैं ऐसे फलसफों पर सोचता हूँ जिन पर वहां नहीं सोच जासकता जहाँ मैं रहता हूँ। जहाँ देह रहती है ...रूह पर बोझ बनकर )...
मेरे रंग मैं घुल जाओ....॥ हरहाल में तुम तुम ही रहो ...मैं ,मैं भी रहूँ ..........क्या इस तरह मुमकिन है...... रामानुजम के विशिष्ट अद्वैत वाद की तरह ....मैं डुबाता हूँ अपने आप को उस में जिसे मैं पाना चाहता हूँ बचपन से भी यही फार्मूला दिया गया है ..परकुछ रह जाता है जिसे मैं खोता हूँ और वो मुझे खोता है .... मेरा अपना aksh ....duniya dari के ghal male में ......जिसे pane के लिए यहाँ आता हूँ .....और पाता भी हूँ ....कुछ दलीलें ... मेरे टारगेट्स और मेरी ख्वाइशें कैसे हम होंगे ..........है कोई .....रास्ता......

सफर को तैयार

सुमति

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