yatra

Tuesday, August 28, 2018

उनके ही जी की

अपने किये की सजा पा रहा हूँ 
पिए जा रहा हूँ जिए जा रहा हूँ
नज़र से नुकीला दिखा जो शहर में 
जिगर के लिए मैं लिए जा रहा हूँ 
तमाशा बनाना कोई उनसे सीखे 
मैं उनके ही जी की किये जा रहा हूँ 
खरामा खरामा लगी ख़त्म होगी 
मैं खुद को तसल्ली दिए जा रहा हूँ 
कहीं लुत्फ़ उनका पड़े कम ग़ालिब 
मैं गलती पे गलती किये जा रहा हूँ 
तराशा बहुत बुतशिकन ने है खुद को 
अपनी बीनायी उसको दिए जा रहा हूँ 


सुमति 

दर्द शहर

अब कभी इस शहर से मिलना नहीं होगा
किया रुखसत खुदी को खुद की चाहत से
खुले ज़ख्मों का अब सिलना नहीं होगा .

जिन्हें आदत है मिलने और बिछड़ने की
हैं जिनकी फितरतें हर शै बदलने की
दिल्लगी मुख़्तसर सा रिवाज़ जिनका है
रो के हंस देना मिजाज़ जिनका है
ऐसे हमसफ़र के साथ अब चलना नहीं होगा .

इस शहर मैं हर सिम्त तनहा रास्ते क्यों हैं
हर ओर क्यों वीरानगी के चश्मे पुरसू  हैं
हैं भीड़ के मुँह पर जमी खामोशियाँ कैसी
हैं शोर के आलम में भी तन्हाहियाँ कैसी
ये कौन लोग हैं और क्यों आतिश जलाये हैं
करे हैं जश्न क्यों और किस लिए खुशियां मनाये हैं
इनके लिए अब खुद को बदलना नहीं होगा

इस शहर को शायद ही हो अंदाज़ जरा सा
मैं छोड़ रहा हूँ इसे  एक बन के तमाशा
इस गली से इस दर से अब निकलना नहीं होगा
टूटे हुए चिराग का जलना नहीं होगा
अब कभी इस शहर से मिलना नहीं होगा

सुमति

Wednesday, August 8, 2018

प्लूटो

मैं खुद को ढूंढने गया 
बहुत दूर तक गया 
निकल कर भीड़ से देखा 
हटा कर आसमान देखा 
ज़मीन के नीचे भी झाँका 
और लगायीं भी कई आवाज़ 
लगा न हाँथ कुछ भी 

ये यक़ीनन शोर करते लोग  
वज़ूद  टिकने नहीं देते 
लगा फिर यूँ कि मैं 
हुआ करता था जिन सफों में
अब उन सफों की दुरुस्ती हो रही है

जहाँ मैं दर्ज प्लूटो सा कभी था 
वहां से  नाम खारिज हो चूका है

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सुमति