Please वापस आजाओ
5 फुट ४ इंच kad
par us ke चेहरे पर नूर इस कदर हावी है की मुझे कोई भरम नहीं की गर वो चाहें तो उनकी एक और बीबी होसकती है ....पर
मेरा शक कहें या दस्तूर की इस उम्र मैं कलमा पड़ने और mala फेरने की जगह ढंड गर्मी बरसात हर मौसम
में काम क्यूँ करते हैं
मुफलिसी का पुतला बने मुस्तफा साहब धीमी और सुस्त चाल से ही सही पर ठीक १० बजे अपनी लघबघ २०-३० साल पुरानी मेज कुर्सी
पर आ जाते हैं .... पता नहीं कौन सी मज़बूरी काम करा रही है ....
....लो वो आगये ..... मैं ने आदाब किया जवाब में पता नहीं आदाब कहा या नमस्कार
....कोट के नीचे से बेल्ट में लटकी चाबीयों के गुछे में से एक से उन्होंने
ताला पड़ी रात भर चेन से बंधी मेज और कुर्सी को जिस्मानी तौर पे अलग किया .....मेज की दराज से एक पुराना मेजपोश निकाल कर बिछाया ..अटैची मे से कुछ सामन निकाल कर मेज पर सजाने लगे
एक लाल इंक पैड ...एक नीला इंक पैड ....दो गोल मोहर ..एक चोकोर मोहर कई मोहरों के हत्ते टूटे ...(shayad ye इंतजार की क्या करेंगे नयी बनवाके उपरवाल पता नहीं कब सम्मन भेजदे )
..आलपिन का डब्बा
दोमुहाँ कलम एक ओर लाल दूसरी ओर नीला...पुराना घिसा हुआ कार्बन पेपर
एक खूंसट सा क्लिप बोर्ड ...और कवर चढ़ा रजिस्टर
जून का महिना बगल मैं दबे दबे अखबार गीला हो चुका था मुझे गीला अख़बार पकडाते हुए ...
.क्या आप इसे सामने typiest की मेज पर सूखने के लिए बिछा देंगे ....
.......मैं हकबका के हाँ ..हाँ जरुर
मेरी दोनों बीवियों में कल रात से कई बातों को लेकर झगडा होरहा है . झगडा इतना उलझ गया कि पता नहीं पहला मुद्दा क्या था झगडे का
.......... छोटी बीबी की लड़की को कार खरीदनी है और बड़ी बीबी को हार
उसे एक हार दिलाने का मेरा भी बहुत दिनों से मन कर रहा था .... कीमोथेरेपी के बाद बड़ी कमजोर होगई है मैं चाहता हूँ कि बेचारी मरने से पहले वो सोने का
हार पहनने की हसरत पूरी करले
गर्मी में भी कांपते हुए हांथों से पन्नो पर मुहर लगते मुस्तफा साहब को देख कर ग़ालिब का एक शेर बरबस याद आगया कि
कैद -ऐ- हयात , बंद-ऐ-गम असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निज़ात पाए क्यूँ
......तो क्या सोचा आपने....
.....कुछ खास नहीं.... सोचता हूँ कि जिंदा रहने के लिए अपनी मौत तक दोनों को ही टाल देना बेहतर है
में ने तीस रुपये दिए उन्होंने छोटी सी डिब्बी से निकाल कर मुझे कुछ रेजगारी वापस कि मैं उसे बिना गिने जेब में डाल खुदा हाफिज़ कर वापस आगया .
ज़ेहन में बस बार बार ye ही लाइने घूम रहीं थीं ......
ग़ालिब ऐ खस्ता के वगैर कौन से काम बंद हैं
कीजिये हाय हाय क्यूँ रोइए ज़ार ज़ार क्यूँ
दिल ही तो है न संग-ओ-किश्त
दर्द से भर न आये क्यूँ ...........
मौत से पहले आदमी गम से निज़ात पाए क्यूँ
वो चाहें मुस्तफा कमाल पाशा हो या एडवोकेट / नोटरी
मो. कमाल मुस्तफा .... हर कद आदम कद है
सुमति
Labels: आदम कद
२५ जनवरी से वक़्त कुछ ज्यादा अच्छा गुजरा ...शायद तभी तेरा रुख नहीं किया ..वरना ऐ दोस्त तुझसा