yatra

Wednesday, May 25, 2011

आदम क़द

5 फुट ४ इंच kad
लगभग ७५ साल उम्र
साफ़ भक्क गोरा रंग
सफ़ेद छोटी सी फ्रंच कट या मौलवी कट दाढ़ी
पतला दुबला शारीर
एक हाँथ मैं अटेची दुसरे हाँथ मैं times of india अखबार
ऐसा ही कोई शख्श धोड़ी बहुत देर मैं आने वाला होगा
मैं उस के इंतजार मैं हूँ

सुबह के ९ बज कर ५० मिनट हुए हैं मैं सोचता हूँ लगभग १० मिनट और...आने ही वाले होंगे

मैं टीन के बोर्ड पर उसका नाम एक बार फिर पढने कि कोशिश करता हूँ ... यूँ तो नाम हिंदी मैं ही लिखा है पर टीन के बोर्ड पर जंग इस कदर हावी है कि जंग के लाल लाल छींटों के बीच बा- मुश्किल कुछ पढने मैं आ रहा है ......
मो० मुस्तफा कमाल ,
एडवोकेट /नोटरी वकील

मुझे इस नाम को पढ़ कर उस कमाल पाशा कि याद आ रही है जो तुर्की मैं

यंग तुर्की मूवमेंट का नेता हुआ करता था वही छोटा क़द और हौसला इतना कि
तुर्की की सदारत छोड़ दी और अपने फार्म हाउस के ट्रक्टर पर जा बैठा
ऐसा ही कुछ लगता है इस ७५ साल के शक्श को देख कर जिस की दो बीवी और ६ बच्चे हैं ४ लड़के
२ लडकियां सभी अछे खाते पीते hain सभी की शादी हो चुकी है छोटी बेगम की फिजूलखर्ची और बड़ी की बिमारियों से तंग ये पांच टाइम का नमाज़ी जीव पता नहीं सालों नोटरी कर रहा hai और क्या हासिल कर पता है इस times of india से जो उसकी बगल मैं रोज़ पसीजने के बाद मेज पर रख कर सुखाया जाता है उसका कोट भी बहुत ... क्या कहूँ बस लबादा ही जानो ....कोट कहना मुनासिब नहीं लगता



par us ke चेहरे पर नूर इस कदर हावी है की मुझे कोई भरम नहीं की गर वो चाहें तो उनकी एक और बीबी होसकती है ....पर
मेरा शक कहें या दस्तूर की इस उम्र मैं कलमा पड़ने और mala फेरने की जगह ढंड गर्मी बरसात हर मौसम
में काम क्यूँ करते हैं
मुफलिसी का पुतला बने मुस्तफा साहब धीमी और सुस्त चाल से ही सही पर ठीक १० बजे अपनी लघबघ २०-३० साल पुरानी मेज कुर्सी
पर आ जाते हैं .... पता नहीं कौन सी मज़बूरी काम करा रही है ....
....लो वो आगये ..... मैं ने आदाब किया जवाब में पता नहीं आदाब कहा या नमस्कार
....कोट के नीचे से बेल्ट में लटकी चाबीयों के गुछे में से एक से उन्होंने




ताला पड़ी रात भर चेन से बंधी मेज और कुर्सी को जिस्मानी तौर पे अलग किया .....मेज की दराज से एक पुराना मेजपोश निकाल कर बिछाया ..अटैची मे से कुछ सामन निकाल कर मेज पर सजाने लगे
एक लाल इंक पैड ...एक नीला इंक पैड ....दो गोल मोहर ..एक चोकोर मोहर कई मोहरों के हत्ते टूटे ...(shayad ye इंतजार की क्या करेंगे नयी बनवाके उपरवाल पता नहीं कब सम्मन भेजदे )
..आलपिन का डब्बा
दोमुहाँ कलम एक ओर लाल दूसरी ओर नीला...पुराना घिसा हुआ कार्बन पेपर
एक खूंसट सा क्लिप बोर्ड ...और कवर चढ़ा रजिस्टर
जून का महिना बगल मैं दबे दबे अखबार गीला हो चुका था मुझे गीला अख़बार पकडाते हुए ...
.क्या आप इसे सामने typiest की मेज पर सूखने के लिए बिछा देंगे ....
.......मैं हकबका के हाँ ..हाँ जरुर
मेरी दोनों बीवियों में कल रात से कई बातों को लेकर झगडा होरहा है . झगडा इतना उलझ गया कि पता नहीं पहला मुद्दा क्या था झगडे का
.......... छोटी बीबी की लड़की को कार खरीदनी है और बड़ी बीबी को हार
उसे एक हार दिलाने का मेरा भी बहुत दिनों से मन कर रहा था .... कीमोथेरेपी के बाद बड़ी कमजोर होगई है मैं चाहता हूँ कि बेचारी मरने से पहले वो सोने का
हार पहनने की हसरत पूरी करले
गर्मी में भी कांपते हुए हांथों से पन्नो पर मुहर लगते मुस्तफा साहब को देख कर ग़ालिब का एक शेर बरबस याद आगया कि

कैद -ऐ- हयात , बंद-ऐ-गम असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निज़ात पाए क्यूँ

......तो क्या सोचा आपने....
.....कुछ खास नहीं.... सोचता हूँ कि जिंदा रहने के लिए अपनी मौत तक दोनों को ही टाल देना बेहतर है
में ने तीस रुपये दिए उन्होंने छोटी सी डिब्बी से निकाल कर मुझे कुछ रेजगारी वापस कि मैं उसे बिना गिने जेब में डाल खुदा हाफिज़ कर वापस आगया .
ज़ेहन में बस बार बार ye ही लाइने घूम रहीं थीं ......

ग़ालिब ऐ खस्ता के वगैर कौन से काम बंद हैं
कीजिये हाय हाय क्यूँ रोइए ज़ार ज़ार क्यूँ

दिल ही तो है न संग-ओ-किश्त
दर्द से भर न आये क्यूँ ...........

मौत से पहले आदमी गम से निज़ात पाए क्यूँ


वो चाहें मुस्तफा कमाल पाशा हो या एडवोकेट / नोटरी
मो. कमाल मुस्तफा .... हर कद आदम कद है

सुमति














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3 Comments:

Blogger Pawan Kumar said...

सुमति भाई......वाह वाह !!!!!!!
75 साल के इस पके हुए नौजवान के बारे में बड़ी तफसील से आपने तज़्किरा किया है......!
ऐसा लगा है कि मो० मुस्तफा कमाल ,एडवोकेट /नोटरी वकील सामने चुपचाप खड़े हों और आप उनका मुझसे तआर्रुफ़ करा रहे हों.
" चेहरे पर नूर इस कदर हावी है कि मुझे कोई भरम नहीं कि गर वो चाहें तो उनकी एक और बीबी होसकती है .... " बहुत सही कहा आपने......!!!
और इस तफसील रपट के बाद चाचा ग़ालिब का ये शेर....... जान लेवा है,
कैद -ऐ- हयात , बंद-ऐ-गम असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निज़ात पाए क्यूँ

...... वैसे ये शख्सियतें अपने आप में एक मज़मून की माफिक होते हैं..... महज़ उन्वान को पढ़ने सलीका चाहिए..जो आप में है.

May 27, 2011 at 11:58 AM  
Blogger sumati said...

शुक्रिया भाई ...आपकी हौसला अफजाई का शुक्रिया
मेरी बस एक चाहत की इंसान के हज़ारों रंगों में रंगे पुतले जो इस कायनात
में अपनी खामोश मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं उन को फुर्सत निकल कर देखने
की कोशिश और लिखने की जुर्रत कर सकूँ ...फिर से कहूँ कि इस्लाह के सारे
हक-ओ-हकूक आपके पास पहले से ही पहुंचा रखे हैं.... इस्तेमाल करते रहिये गा ...
शुक्रिया

सुमति

May 27, 2011 at 12:53 PM  
Blogger ज्योति सिंह said...

bahut hi badhiya likha hai ,doosri baat sumati ye naam bahut aziz hai mujhe .

May 28, 2011 at 1:26 AM  

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