yatra

Thursday, May 19, 2011

भिखारी

२५ जनवरी से वक़्त कुछ ज्यादा अच्छा गुजरा ...शायद तभी तेरा रुख नहीं किया ..वरना ऐ दोस्त तुझसा
मुझे बर्दाश्त करेने वाला इस दुनियां में कौन hai....
( हाँ एक आइना भी hai वहां भी मे बिना किसी मुखालफत के
जा खड़ा होता हूँ .)
.......और तुम्हारे पास भी अजल के बाद भी सकूँ होगा और में बेधड़क आ सकूँ गा ...


पिछली बार बात रेलवे क्रोस्सिंग के उस सुल्फा पीनेवाले भिखारी की करते करते में खुद पता नहीं किस नशे में बहक गया
की मुसलसल ५ महीने के बाद तुम्हारे पास वापस लौटा हूँ .....
सन २००५ से २०१० तक ...तक़रीबन पांच साल ... हम (मैं और वो भिखारी ) एक नफरत और मसल्हक के रिश्ते में सफ़र करते रहे .
वो रोज हाँथ फैलाता रहा और मै रोज नज़र फेरता रहा
उस दिन मुझे अच्छी तरह याद hai इतवार का दिन में अपने रोटीन में शाम से पहले घर वापस आरहा था और गुलाम अली साहब बड़ी फुर्सत से
ग़ज़ल गा रहे थे .....कूंचे को तेरे छोड़ कर
..जोगी ही बनजाते मगर ...
जंगल तेरा बस्ती तेरी दरिया तेरा सेहरा तेरा .
..कल चौदवीं की रात थी ..
गाड़ी ने या ...ठीक कहूँ तो ड्राइवर ने ब्रेक लिया . अनुमान से मैंने आँख खोली. शायद रेलवे फाटक आ गया .... और आँख खुलते ही फाटक से पहले या यूँ कहो की फाटक और हमारे बीच
वो भिखारी उसी तरह लाठी की मुठ पर सारे जिस्म का बोझ लिए ...आँखों में हलकी काजल की लकीर और चेहरे की झुर्रियौं में रात के बहे हुए काजल की
फंसी हुई परतें .... पीले.... कुछ टूटे.. कुछ उखड़े हुए दांतों की झलक भद्दे से पपड़ी जमे ओंठों के बीच से कोई आवाज सी फूटी ...कार के बंद शीशे ..
टी शर्ट के ऊपर शर्ट और नीचे वही traditional चौखाने वाली लुंगी ...जेब से झांकता बीडी का बण्डल जो शायद कहरहा hai की सुल्फा के साथ में भी इन पीले दांतों का
जिम्मेदार हूँ कमर पर बधी लुंगी की अंटी से झलकती वो क्रोशिया की बुनी हुई टोपी जो शायद मुस्लिम जमात से जकात वसूल लेने का
उपर वाले का दिया लाइसेंस hai जिसे तभी लगाना hai जब कोई गाड़ी ७८६ या KGN (ख्वाजा गरीब नवाज ) लिखी हुई आये
ठोड़ी के इर्द गिर्द इक्का दुक्का काले सफ़ेद बाल . मैं ने अपनी ओर बढा हुआ हाँथ देखा ..लोगों ने फटी हुई एड़ियाँ देखि होंगी
मैं ने उस भिकारी की दरार पड़ी फटी हुई उँगलियाँ और हथेली देखी
गंदे नाख़ून और उनसे बहार झांकता हुआ मैल... पर कुछ खास सा था की उस दिन मेरी ऊँगली प्रेस बटन पर पड़ी शीशा नीचे हुआ और
मैं ने जेब से निकल कर ५० का नोट उस भिखारी की तरफ बढाया भिकारी के चेहरे के भाव बिलकुल नहीं बदले
उसने ५० पैसे के सिक्के की तरह ही उस ५० रूपे के नोट को माथे से लगाया और सिर झुका कर लाठी टेकता आगे बढ़ गया ...
मैं ने पलट कर देखा तो वो सर पर टोपी लगाता हुआ उस ट्रक की तरफ बढ़ता जारहा था जिस पर लिखा था ख्वाजा की दीवानी .......आज उस दिन से मैं लग भग रोज वहां से गुजरता हूँ पर मेरे ५ साल पुराने गुरुर को तोड़ वो अब मेरी तरफ हाँथ नहीं फैलाता मुझ को वो उन्ही बुझी हुई उतरती गुजरती नज़रों से देख भर लेता है ..वो मेरे पास से गुज़र जाता है और ... मेरी उँगलियाँ जेब तक जा कर फिर वापस आजाती हैं .


SUMATI


1 Comments:

Blogger Pawan Kumar said...

"कोई दरीचा खुले या तुझे हँसी आये, किसी तरह से तो घर में रौशनी आये ......"
फतेहगंज के उस क्रोसिंग से कई यादें हमारी भी मरासिम हैं....
शायद वो सुल्फा वाला कहीं धुंधला धुंधला हमें भी याद है....
उस भिखारी को पचास रूपये देकर इतना सब पा लिया...
कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं जो बगैर किसी जुडाव के चलते जाते हैं और हमें एहसास ही नहीं होता....!!!
देर से आने का ही सही मगर शुक्रिया.

May 19, 2011 at 5:43 PM  

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