गुमशुदा
मुनासिब तो यही होता
कि तुम सब बोल कर जाते
जो गिरहें मुझ से बाँधी थीं
वो सारी खोल कर जाते
बता जाते खता मेरी
दिखा जाते अना अपनी
जो दुनिया से डरे थे तुम
तो सुना जाते निहां डर भी
जो सब तुम बोल कर जाते
तो कोई बोल ना पाता
जो गिरहें खोल कर जाते
तो कोई खोल न पाता
जो सारी दौलतें अपनी
रक़म चुन चुन के की हमने
कहाँ अब दफन करनी हैं
बता कर ये भी जाना था
कि जीना है या मरना है
ये भी तुमको बताना था
भटकती रूहों के जैसे
भटकता हूँ मैं रातों को
बड़ी लाचार सी लगती
कज़ा अब मेरे हाँथों को
ये रेशम डोर सी मुर्दा
जवानी खौफ देती है
न जाने कौन सी शै
ज़िन्दगी तक खींच लेती है
शायद
ये सुनना चाहती है वो जो
तुम्हें बतला के जाना था........
ये सुनना चाहती है
मुनासिब सी वज़ह कोई
जो तुमको बोल जानी थी।
सुमति