yatra

Sunday, June 17, 2018

गुमशुदा


मुनासिब तो यही होता

कि तुम सब बोल कर जाते

जो गिरहें मुझ से बाँधी थीं
वो सारी खोल कर जाते

बता जाते खता मेरी
दिखा जाते अना अपनी

जो दुनिया से डरे थे तुम
तो सुना जाते निहां डर भी 

जो सब तुम बोल कर जाते
तो कोई बोल ना पाता

जो गिरहें खोल कर जाते
तो कोई खोल न पाता

जो सारी दौलतें अपनी
रक़म चुन चुन के  की हमने
कहाँ अब   दफन करनी हैं
बता कर ये भी जाना था

कि  जीना है या मरना है
ये भी तुमको बताना था

भटकती रूहों के  जैसे
भटकता हूँ मैं रातों को

बड़ी लाचार  सी लगती
कज़ा अब मेरे हाँथों  को

ये रेशम डोर सी मुर्दा
जवानी  खौफ देती है

न जाने कौन सी शै
ज़िन्दगी तक खींच लेती है

शायद
ये सुनना चाहती है वो जो
तुम्हें बतला के  जाना था........
ये सुनना चाहती है
मुनासिब सी वज़ह कोई
जो तुमको  बोल जानी थी।


सुमति




















0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home