yatra

Sunday, June 17, 2018

चुतियापा

ग़ालिब छूटी  शराब पर अब भी कभी कभी 
पीता हूँ रोज़ ऐ-अब्र-ओ शब्ऐ- महताब में 

कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ऐ-ख़राब में 



ज़िन्दगी का तखल्लुस ही चुतियापा होना चाहिए।------ ये बात मुझे खुद से समझ आयी हो ऐसा नहीं है। 
 मुद्दतों चूतिया  बनने के  बाद ये इल्म हासिल हुआ है  ........ खैर हासिल तो घंटा नहीं हुआ  बल्कि ये आसमान से नज़्र  हुई ऐसी नियामत है.....  जिसे अब पहलू  में  रख कर शाम ओ सहर करने मे  ही सकूँ मिलता है।  
जितनी बड़ी चाहत उतना ही  बड़ा चुतियापा। 
 कुछ न मिले तो भी दर्द और मिल जाए तो  भी दर्द।  
जो चाहिए सो मिलता नहीं जो मिलगया वो चाहिए ही नहीं  था।  इन्हीं चुतियापों  में इतनी उम्र  काट लाये                    और कितने दिन  का रंडी-रोना बचा है पता नहीं। 
 पर इतना तो है की महज ये अपने साथ ही नहीं है......  रेल तो  सबकी बनी हुई है।
  क्लब मैं दारु  डकारते बुड्ढे हों या मुख्यमंत्री  के कमरे  के बहार बगल में फाइल दबाये खड़े चीफ साहब         सभी  का  हाल जमाल एक सा है।  अपनी बीबी से मोहब्बत करने  और बॉस की जी हुज़ूरी को सब मज़बूर हैं.
वैसे उपरवाले ने तो कोई ऐसा सिस्टम फिट कर के  भेजा नहीं था की साले डर कर रहो
 पर कुछ है की आदमी का डर      उसके निक्कल लेने    के  बाद ही निकलता है  और तब तक चूतियापे  में लोगों से मिलता बिछड़ता रहता है।  
अच्छा एक और सियापा है इस ज़िन्दगी के  साथ की  ये मुक़्क़मल होने का नाम ही नहीं लेती ज़िन्दगी न हुई पीठ की खुजली हो गयी साला दूसरा ही खुजला  के  मिटा सकता है पर उसे ये बताना ही तमाम मुश्किल है की खुजलाना किधर है खैर मैं तो अपनी खुजली लिख कर ही मिटा लेता हूँ कभी मिलोगे तो और बात करेंगे फिलाल तुम चूतिया बनाते रहो हम बनते रहें यही मुनासिब है की हम एक नाव में चलते रहें*****      



जिन दरख़्तों से लिपट कर 
हम बहुत रोये मगर
उन पर फूल भी खिलते रहे 
उन के खार भी चुभते रहे
इस शहर के  रास्ते 
गुलज़ार थे 
 ना 
 ख़ुशगवार थे
क्या पता क्यों पॉंव मेरे 
किस लिए चलते रहे
 और 
किस लिए दुखते रहे
यूँ कटी थी रात सारे 
दोस्तों के बीच में 
उम्र भर जगते रहे और 
 अॉंख भी मलते रहे
तुम भी बनोगे भीड़ का 
हिस्सा मुझे  इल्म था
घर हमारी बस्तियों के 
आग में जलते रहे औऱ 
खा़क में ढलते रहे.

सुमति 

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