तखलिया
पता नहीं कौन सी' की' दब गई और पुरी इबारत ही मिटा के रख दी .......यूँही कभी -कभी जिंदगी मैं भी होता है हम पता नहीं किस झोंक मैं क्या कर बैठते हैं और एक नई कहानी बनके सामने आती है। कहानी यूँ कि.. भोगने वाले के लिए तो वो यातना या जो कुछ है लेकिन सुनने वाले के लिए एक किस्से से ज्यादा कुछ्भी तो नहीं ........तभी मुझे अपने कुछ ऐसे दोस्त अच्छे लगते हैं जो लबों पर अपने जीवन की यातना आने ही नहीं देते सदैव प्रस्सन .....
हाँ मैं जो लिखते लिखते मिटा बैठा उसे याद कर के फिर लिखने कि koshish करता हूँ .....
जब कभी मैंने अपने दास्ताँ-ऐ-गम से कहा तखलिया ...तो वो और ज़ोर से मेरे सीने से चिपक गई ...सैकडों बिच्छू जैसी जीवन कि कहानियाँ....ये कहानियाँ ही हैं तुम्हारे लिए मेरे दोस्त ..क्यूंकि यदि मैं तुम से इन्हें सच मानने केलिए कहूँ तो शायद हमारी दोस्ती मैं बल पड़ जायें ...मैं किसी बादशाह कि तरह हुक्म उन्हें कैसे दे सकता हूँ । सफर मैं बिस्तरबंद के बोझ कि मानिंद उन्हें ढोता हूँ । क्यूंकि मुझे नींद नहीं,ख्वाब नहीं, आराम नहीं चाहिए ,मेरे सफर का बोझ ,मेरा बिस्तरबंद ,जो चारागाह है मेरे ग़मों का ...साथ रख कर मैं यात्रा करता हूँ ....और सोचता हूँ कि तुमने कैसे सिख लिया हँसते हुए जीना ..हो सके तो मुझे भी वो फलसफा दो मेरे दोस्त .....ताकि मेरे तःक्लिया कहते ही ये सब मुझे एकांत मैं छोड़ दें .....मैं मुस्करा सकूँ तुम्हारी तरह दो चार गम होने के बावजूद ...
यात्री (उबन मैं )