मुकम्मल था कभी मैं ....
एक दुनिया थी मेरे सामने ,
एक चारागार था ,
हसरत थीं मेरे दिल में.. बहुत ऐतबार था,
सब कुछ मैं पाया करता था सफों में, किताब में ,
डूबा नहीं था तब तलक दुनियावी अजाब में ,
मैं खुशमिजाज था , बहुत अहले कमाल था,
औरों के लिए मैं एक हंसती मिसाल था ,,
मैं बुन्लिया करता था अक्सर khushfamiyon के जाल ,
और नज़रों मैं अपनी रखता था पैगम्बरी ख्याल ,
धोखे का नाम जानता ना मक्कारियों की चाल,
मेरे जेहन को छेड़ते थे मखमली ख्याल ,
एक रौशनी सी देखता था हर सुबह में मैं ॥
और चांदनी संभाल ता था दस्तरस मे मैं..
लेकिन तुझे ऐ जिंदगी किसकी नज़र लगी ..
lekar के चन्द नोट क्यूँ ..... तू गई ठगी
सब कुछ दिया तूने .. मगर अपने हिसाब से
सफे शुरू के फाड़ दिए .. क्यूँ किताब से ॥
sumati
3 Comments:
सब कुछ दिया तूने .. मगर अपने हिसाब से
सफे शुरू के फाड़ दिए .. क्यूँ किताब से ॥
सुमति भाई क्या लिखा है मज़ा आगया. जो कहना था सब कह दिया .......बड़ी आसानी से. वैसे जो हाल आपका है उस पर एक शेर मुकम्मल बैठता है...........
जिंदगी से बड़ी सज़ा ही नही
और क्या जुर्म है पता ही नही,
जिंदगी ऐसी नाव है जिसपे हम सब सवार हैं यह अलग बात है कोई समृधि में है कोई अभाव में है....मगर यह आँख मिचौली कोई कम मजेदार तो नही .मैं दस दिन तक फ़िर गायब हो गया था...मध्य प्रदेश के दौरे पर था लौट आया हूँ कुछ नए अनुभव लेकर जल्दी शेयर करूंगा.
bahut khoobsurat likha hai , apke ek ek shabd me dard jhalak raha hai,esa lagta hai ki kuch milne se rah gaya ,per apko ye b malum hai ki zindagi deti apne hisab se hai,
kuch pana kuh khona ,yehi to zindagi hai
SABKUCH DIYA TUNE....................SAFE SHURU K PHAAD DIYE....KYUN KITAAB SE. YE LAST LINE KAMAAL KI HAI...IN DO LINES ME BAHUT KUCH KEH DAALAA...BEHAD UMDAA..
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