कहाँ से दिन गुजरा किधर को रात गयी .
.......बहुत मुश्किल से अपनी बात गयी ..
कभी सकूँ की शक्ल देखी होती तो शायद उसे पकड़ कर या उसके
पैर पकड़ का बैठ गए होते
हर रात कुछ सिक्कों को गिन के सोता हूँ
हर एक रात कुछ रिश्तों को खो के रोता हूँ
सुमति
.......बहुत मुश्किल से अपनी बात गयी ..
कभी सकूँ की शक्ल देखी होती तो शायद उसे पकड़ कर या उसके
पैर पकड़ का बैठ गए होते
हर रात कुछ सिक्कों को गिन के सोता हूँ
हर एक रात कुछ रिश्तों को खो के रोता हूँ
सुमति
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