yatra

Wednesday, May 23, 2018

यारा

पता नहीं कहाँ से मिला ये रद्दी  कागज़ का टुकड़ा कब लिखा था वो भी याद नहीं
कुछ लिख कर छोड़ देना पकने के लिए   एक आदत सी है   
कभी कभी पकने की जगह
चीजें सड़  गल भी  जाती हैं ये सोच नहीं पाता  हूँ
यहाँ वहां छूटे फुटकर ख्वाब रद्दी के  भाव भी तो नहीं बिकते बस। ... ये ब्लॉग ही तो है जहाँ चस्पा कर के
 भड़ास निकाल  लेता हूँ  - लीजिये पढ़िए

यारा

खुले जो दिल तो क्या मजा शाम दे गयी यारा
मिला के आँख चिलमन से जाम दे गयी यारा।

मैं खार खार - रहा जब तलक रहा तनहा
तेरी ज़ीस्त जीने का फरमान दे गयी यारा

मेरे  मसाइलों  को मांझे सा उलझा   कर वो
बेकाम सफर  को एक   काम दे गयी यारा

झाँक कर देखा जो      मांझी के  झरोखे से
ज़िन्दगी झंड थी सो झंडू बाम दे गयी यारा  .

सुमति 

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