तलाश ज़ारी है
एक तलाश एक उम्र भर की तलाश की कोई हुमज़ुबाँ होता कोई ग़मग़ुसार होता , पर मुक़म्मल होती ही नज़र नहीं आती। एक ज़रा सी चाहत भी पूरी न हो , ज़र ज़मीन तो नहीं मांगी मैंने। मांगा तो बस ये था की सुलझ जाऊँ मैं ,कुछ तुम में उलझ कर , पर मगर से परे मरासिम ही नामुमकिन सी चीज़ है दुनिया में . मसला दर असल तन्हाई का है जुदाई का नहीं और ज़िन्दगी की तपतपाती दोपहर में कहाँ निकल के जॉउ वो भी एक उकताहट भरी परेशानी सर है सो तलाशते से रहना , जहाँ रहना , परेशां रहना । इक अरसे से ये ही जी का हाल है ।
मुनीर नियाज़ी की एक ग़ज़ल बरबस याद आती है
कुछ अपने जैसे लोग मिलें
मुनीर नियाज़ी की एक ग़ज़ल बरबस याद आती है
कुछ अपने जैसे लोग मिलें
इन रंग बिरंगे शहरों में
कोई अपने जैसी लहर मिले
इन साँपों जैसी लहरों मेँ
कोई तेज़ नशीला ज़हर मिले
इतनी किस्मों के ज़हरों में
हम भी न घर से बाहर निकले
इन सूनी दोपहरों में ।
ख़ुदा हाफिज़ ।
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