yatra

Monday, May 30, 2011

Please वापस आजाओ

Please  वापस आजाओ

       २० साल उम्र का सांवला सा लड़का सुलगते हुए कंडे को पयार के बण्डल के बीच रख कर चारों ओर चक्कर लगा रहा  था हल्की सी हवा लगी और पयार सुलग उठी.... उसने घूम-घूम कर टीन शेड के नीचे चबूतरे पे रखी लकड़ियों में चारों ओर से आग लगा दी और आग लगाते -लगाते वह ज़मीन पर गिर गया उसक मुंह से चिंघाड़ निकली जो  कलेजे को चीरती चली गयी ...इन लकड़ियों के ढेर के नीचे उसके २५ साल के भाई का शरीर था ... जिसे छू-छू कर वो   २० साल का हुआ था .आज वो शरीर जल कर राख होने वाला था .......


......क्या होता है मर जाना .....और क्या होता है हमेशा हमेशा  के लिए जाना.......

......

              एक टीन के डब्बे में भाई ने कंचे भर रखे हैं ओर वो डब्बा अम्मा की अचार वाली टांड पर रखा करता है मेरी पहुँच से बहुत दूर मुझे रह रह कर भाई पर गुस्सा आरहा है ..वो जानता है की मर्तबान न टूट जाएँ एस डर से मैं  कंचे के डब्बे को उतारने की कोशिश भी नहीं करूँगा ...और भी बहुत कुछ मैं झेलता हूँ ....कंचे ही नहीं शतरंज ,पतंगे दोस्त साईकिल, अलग  बिस्तर, छोटा जेब वाला  कंघा ,फुल पेंट  जेब खर्च सब उसको मिला हुआ है ....मुझे क्या ....मुझे लोग उसकी पूंछ या उसके कुछ दोस्त तो मुझे "लटक" कह कर बुलाते है मैं अब सब समझ ने लगा हूँ ..........भाई की पुरानी शर्ट को ये कहकर मुझे पहना दिया जाता है की .."ये तो बिलकुल नयी रखी  है उसने(भाई ने ) पहनी ही कहाँ है"..... पर   मैं सब समझता हूँ ...... मेरा बस नहीं चलता  वरना.........पूरे पूरे दिन मुझसे   पद्दिंग कराता है बैट  तो छोडो गेंद को हाँथ नहीं लगाने देता... छोटा न हुआ गुनाह हुआ ....
                        शाम.... सूरज बिलकुल लाल  बौल
  जैसा  है  मैं और भाई छत पर बैठे हैं   ..."तू जानता है छोटे की ये सूरज डूबने वाला है ..अब हमें ये सूरज कभी नहीं दिखाई देगा"     ..."भाई ये बिलकुल बेकार की बात है भूगोल वाले मास्साब एक दिन समझा रहे थे की सूरज कहीं नहीं जाता हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घुर्दन करती है जिस से दिन और रात होते हैं ठीक २४ घंटे बाद ये सूरज यहीं पर इसी शक्ल  में होगा और हम एक चक्कर काट कर यहीं आजायेंगे ...भाई ने जैसे कुछ सुना ही नहीं मेरे  सारे  ज्ञान को नज़रन्दाज कर वेह बोलता है कि .....  "छोटे पर कल जब हम आयेंगे तो ये सूरज ना होगा .....वो सूरज और होगा ....मेरी समझ में  सिवाय  इसके कुछ नहीं आया की भाई अपने आगे मेरी चलने कहाँ देता है ......शायाद इस बीच मां आँगन में खड़ी हम दोनों को आवाज लगा रही थी .."..सूरज के बच्चों नीचे उतर आओ तुम्हारा बस चले तो तुम लोग २४ घंटे पतंग उड़ाते रहो ..."...भाई ने पतंग और चरखी उठाई और नीचे को दौड़ पड़ा ...मैं सोचता हूँ कि भाई को ये भी भरोसा नहीं की मैं पतंग - चरकी ठीक से  नीचे भी  लेजा सकता हूँ ?....
      भाई को पीठ दर्द कि शिकायत रहती है ...वो खुद से तरह तरह कि दवाईयां खाता रहता है ...डॉक्टर ने कोई रीढ़ कि हड्डी होती है उसका ऑपरेशन बता रखा है ...तब से पिता जी कुछ पस्त से रहते हैं ...पिता जी दिन भर काम /ड्यूटी पर रहते हैं घर के सारे काम उनके जिम्मे हैं या अब मुझे लगने लगा है कि वो सारे काम जबरन उन्होंने अपने हाँथ में ले रखे हैं सब्ब्जी लेने से लेकर साबुन तेल दाल गेहूं सभी कुछ हमारे ब्रुश UNDERWEAR   कॉपी किताब सभी कुछ  अभी तक पिता जी ही ले कर आते हैं ......और फिर घंटों हिसाब लगाते हैं ...मैं सुनता था कि वे बेहद मेहनती   और इमानदार व्यक्ति हैं ...पूरी लगन और शिद्दत से सेठ का काम करते हैं ..सेठ भी उन्हें पूरी  इज्ज़त और थोड़ी कम  पगार दिया करता है ... पर पिता जी को इस से कोई शिकायत नहीं है ...हाँ मां ही जब तब भड़क उठती है   कि सेठ तुम्हारा खून पिए है सुबह ७ बजे निकलते हो रात ८ बजे घर में घुसते हो और अब घर पर भी लिखा - पढ़ी का काम ले कर आगये 

                 भाई की पिता जी से बेहद कम बात होती है मां सन्देश वाहक का काम करती है .."इसे पूछो इसकी  पीठ का दर्द कैसा है ....भाई सारे जवाब मां कि तरफ मुंह करके ही देता है और जब कभी पिता जी से नज़र मिल भी जाती है तो दो बोलचाल बंद लोगों जैसा उसका चेहरा हो जाता है .."इस से कहो की ज्यादा  पेन किलर ना खाया करे" ......इस मुद्दे पर ....सब शांत हो जाते हैं ....मानो किसी पर इस दर्द का पार नहीं है पिता जी पे भी नहीं ...........वो मुझ से भी काम ही बात करता है पर वो मुझे बेहद प्यार करता है अक्क्सर रात में सोते पे मैंने महसूस किया है कि वो मुझे टकटकी लगा कर देखता रहता है मेरे गालों पर भी हाँथ फेरता है कई अपने से बड़े लड़कों से उसने मेरे लिए लडाईया लड़ी हैं ..मेरी वजह से उन्हें पीटा भी है और पिटा भी   वो मुझे अक्क्सर बैठ कर ऐसी बातें समझाता है जिनका मतलब मैं बेहद देर में कुछ कुछ गलत सलत समझ पाता हूँ  हाँ उस वक़्त इतना जरुर समझ पाता हूँ की भाई मुझे बेहद प्यार करता है ....

 ..........   आज मैंने आग की लपटों में एक सूरज को दरकते हुए देखा है............ ये सूरज.....फिर वापस नहीं आये गा .....महज तीन दिन में कोई कैसे मर सकता है  ......कोई कैसे मेरे २० साल छीन सकता है .....सांसों के रुक जाने से सब कुछ क्यूँ ख़तम होजाता है...कोई अपने को कैसे आग दे सकता है  ...
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.........वही सूरज लौट कर क्यूँ नहीं आ सकता

भाई इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी .....वापस आ जाओ ...भाई तुम PLEASE  वापस आ जाओ ....में तुम्हारे कंचे .चरखी नहीं संभाल सकता ..तो फिर भला इन सब को कैसे संभालूँगा .....

भाई PLEASE ........







                                       

2 Comments:

Blogger Pawan Kumar said...

"......क्या होता है मर जाना .....और क्या होता है हमेशा हमेशा के लिए जाना......."

टीन के डब्बे में भर कंचे और अचार वाली टांड पर रखा मर्तबान ,शतरंज ,पतंगे, दोस्त, साईकिल, अलग बिस्तर, छोटा जेब वाला कंघा ,फुल पेंट के साथ बैट- बाल का खेल .............. जैसे बचपन सामने खड़ा होकर आवाजें दे रहा हो.

दो भाइयों की ये कहानी बहुत से प्रश्न छोड़ गयी..... जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सवालों के उत्तर जीवन भर भर नहीं मिलते, तलाश फिर भी मुसलसल ज़ारी रहती है. बचपन का सबसे बड़ा साथी तो भी- बहन ही होते हैं...वक्त गुज़रता है, रिश्ते कभी खिसकते हैं तो कभी महकते हैं कभी कभी दरकते भी हैं, मगर इन सब कवायदों के दरम्याँ ये ज़िन्दगी घिसटती रहती है. बहरहाल इस कशमकश को दर किनार करते हुए मैं तो यही कहूँगा कि कहानी का ताना बाना बेहद संवेदनशील है... भाषा भी बहुत कसी हुयी है. एहसासों के चरागों से रोशन इस वाकये की तारीफ़ जितनी की जाए उतनी कम है.

May 31, 2011 at 10:51 AM  
Blogger Pawan Kumar said...

"......क्या होता है मर जाना .....और क्या होता है हमेशा हमेशा के लिए जाना......."

टीन के डब्बे में भर कंचे और अचार वाली टांड पर रखा मर्तबान ,शतरंज ,पतंगे, दोस्त, साईकिल, अलग बिस्तर, छोटा जेब वाला कंघा ,फुल पेंट के साथ बैट- बाल का खेल .............. जैसे बचपन सामने खड़ा होकर आवाजें दे रहा हो.

दो भाइयों की ये कहानी बहुत से प्रश्न छोड़ गयी..... जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सवालों के उत्तर जीवन भर भर नहीं मिलते, तलाश फिर भी मुसलसल ज़ारी रहती है. बचपन का सबसे बड़ा साथी तो भाई- बहन ही होते हैं...वक्त गुज़रता है, रिश्ते कभी खिसकते हैं तो कभी महकते हैं कभी कभी दरकते भी हैं, मगर इन सब कवायदों के दरम्याँ ये ज़िन्दगी घिसटती रहती है. बहरहाल इस कशमकश को दर किनार करते हुए मैं तो यही कहूँगा कि कहानी का ताना बाना बेहद संवेदनशील है... भाषा भी बहुत कसी हुयी है. एहसासों के चरागों से रोशन इस वाकये की तारीफ़ जितनी की जाए उतनी कम है.

May 31, 2011 at 10:51 AM  

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