yatra

Tuesday, January 25, 2011

फसाद में किरदार है

तुम्हें एहसास नहीं दर्द की कश्ती के सभी सवार उतर चुके हैं और तुम्हारे पोर्ट्रेट पर ही लाइट्स हैं पर्दा अभी भी उठा हुआ है और तुम किर्दार के बहार जा कर बैठ्गाये हो वापस आओ तुम
(म्यूजिक एक तेज जेहरीली आवाज़ सा बज उठता है )
में रोज़ एक रेलवे क्रोस्सिंग से गुज़रता हूँ मुझे जान ने वाले ये भी जानते है न की वो कौन सी क्रोस्स्सिंग है , रोज़ एक दरकते हुए शख्श को लाठी की मुठ पर खुद को ढोते हुए देखता था । शायद शुल्फा या अफीम पीता हो। एक बार भी नहीं देखा । बस एक साया सा मैं महसूस करता मेरी मुह फेर लेने की कवायत और उसकी रोज़ हाँथ फ़ैलाने की रवायत कम नहीं कम से कम ४ बरस से ज्यादा वक़्त से चल रही थी ।
मुझे झुंझलाहट सी होती थी उसे देख कर भी । वो शायद ही कभी मेरी और हाँथ फ़ैलाने से रह जाता हो और हर बार मैं खुद को दूसरी तरफ कर उसे देखने मैं भी झुंझलाहट महसूस करता था मैं कार में एक कामदार आदमी वो सड़क पे बेकाम , बेकार , बर्बाद भिखारी ।
एक रोज़ शायद मुझ पर या उस पर जिंदगी मेहरबान थी ......

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