yatra

Saturday, May 22, 2010

गयी बात 5 मई कि हो गयी..... न egipt ही गया.. न ब्लॉग पर जल्दी लौटा .....बस बचाता रहा .....कभी खुद को, कभी कारोबार को, कभी रिश्तों को कभी दोस्ती को ......कभी बैंक बैलेंस को कभी खर्चों को ....कभी phijiq को कभी उम्र को कभी नींद को कभी ख्वाब को कभी कुछ गुस्से को कभी बच्चों को कभी जिस्म को कभी रुह को ..... हाँ इधर कुछ ऐसा लगा कि ज़िन्दगी ढर्रे पे आ सकने कि गुनजाएश अभी बाकी है .कभी को यूँ लग रहा था अवल्ल मान ही लिया था कि जिंदगी कि इमारत मैं खलिश के अपने कमरे है जो पुत नहीं पाते .....पर्त दर पर्त गर्दा जमने को .बने हैं ...
॥ खपने का अपना एक अलजेब्रा है । जैसे और जब भी किसी थेओरम को solve करना होता है तो हम को पहले ही बता दिया जाता है कि रिजल्ट ये आना चाहिए या ये ही रिजल्ट होगा । आप कि मर्जी नहीं है कि किसी स्क्रीन प्ले कि तरह स्टोरी का आप एंड बदल सकें ॥ वैसा ही कुछ खपने के साथ भी लागू होता हैं ..खपने के अपने results तय हैं .. खपने कि जहाँ सारी सीमायें टूट ने लगें तो समझ लो मरने का समय आगया बस खपने से मरने के बीच का अलजेब्रा हैं हम या यूँ कहें खपने से शुरू हुई थ्योरम मरने पे जा के prove करती है कि हमारे होने का क्या मतलब था । जैसे गाँधी जी के खपने का मकसद आज़ादी या गोडसे को फांसी इनमें से एक तो था ही ।
आज बचने और खपने के बीच कि लकीर पर बैठ कर सोचता हूँ मैंने क्या खपाया और क्या बचाया
और इस थ्योरम के solve होने मैं अभी कितनी देर है । आज खुश रहने को इतना काफी है कि आज एक रिश्ते में पहले जैसी ताजगी लौट आई है .एक rishta बचा लिया है ........बस दोस्ती के रिश्ते में ही ये गुंजाईश भी होती है ..

1 Comments:

Blogger Pawan Kumar said...

well done sir....i salute u and ur feelings...!

May 28, 2010 at 9:27 AM  

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