आज यका यक एक ग़ज़ल कहीं बजती सुनी मैं वहां से सेकेंड्स मैं गुज़र गया पर मेरी आँखों मैं एक दौर तैर गया 90,91 का दौर ..
............आह का वह दौर ......
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा बयान से
कभी aake मंज़रे आम पे कभी hat के मंज़रे-ऐ-आम से
न गरज किसी से न वास्ता , मुझे काम अपने ही काम से ,..
तेरे ज़िक्र से ,तेरी फिक्र से ,तेरी याद से ,तेरे नाम से....
तेरी सुबह ऐसे है क्या बला, तुझे ए फलक जो हो हौसला
कभी करले आके मुकाबिला ,गम -ऐ- हिज्र -ऐ- यार की शाम से
याद है मुझे लग भग पूरी ग़ज़ल याद है
पता नहीं किसने लिख दी और कौन गा गया था एक -एक शेर जैसे स्याह मंज़र मैं रेंगती कोई दर्द की लकीर
और इर्द गिर्द इकठए कुछ यार दोस्त .......मुझे याद है हमारे बीच एक शख्श था जो इस तरह की ग़ज़ल हम लोगों को लाकर दिया करता था और हमारी उम्र भी येही कोई १९, २०
साल की........... जब दर्द से नए- नए रु-बरु हो रहे थे . उम्र का यह वो दौर होता है जब आप ऐसे ही मंज़र में जा ही फंसते हैं जहां आपके दोस्तों के अलावा कोई आपको नहीं समझता ,नहीं समझना चाहता.. बस एक धुन ...रगों मैं दौड़ते लावा की तरह ...तेरे ज़िक्र से ...तेरी फिक्र से... तेरी याद से ...तेरे नाम से
उम्र का न भुलाया जाने वाला वह दौर अज़ीम है ....
1 Comments:
sach hi to hai ....hr umr apne me khas hoti hai pr jis umr ka zikr apne kiya vo vakai me apne ap me khone wali hoti hai
kuch yade umr k hr daur me hme taro taza rakhti hai
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