yatra

Monday, July 23, 2018

बे बंदिश सड़क पर

घर तो नहीं जहाँ जाना चाहूँ 
और इस सड़क की  अपनी ही  बंदिशें हैं 
कहाँ मैं पहुँच  जाऊं 

गुज़र ऐसे  वैसे नहीं 
ज़िन्दगी ठहर  जा 
जाकर कहीं 
कोई  एक बार की मुश्किल हो तो गुज़ार लूँ मैं 
हर शाम सड़क की बंदिशों का क्या करूँ मैं 

कभी धोखा भी न हो और 
भटक जाएँ उस ओर वहां 
वीरान तन्हाइयों के हैं शोर जहां 
जहां रहती नहीं उम्मीद कोई 
और मिलती नहीं ताबीर कोई 
बस टूटे हुए ख्वाबों की किरचने बिखरी हैं 
पैरों में चुभती हैं , आँखों मैं गड़ती हैं 
दिल ओ दिमाग में घुस जाती हैं 
शाम होते ही जिगर को लहू रुलाती हैं 


इस शहर मैं एक घर तलाशता हूँ मैं 
हर ओर चीखता चिल्लाता भागता हूँ मैं 

रह रह के कोई कान 
में कहे जाता है 
अबे दिल रे 
घर से मिल रे 
या निकल ले ज़िंदगी से  

बे बंदिश सड़क पर 

सुमति 

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