yatra

Wednesday, October 24, 2012

दर्द

कई बार सोचा 
बे पर्दा तमाम रिश्तों के नंगे बदन पर
मैं अपनी सख्त ऊँगली से लिखूं
कि तुमको अब   मैं
भूलता हूँ

मगर आसान   होता स्लेट पर लिख्खा  मिटाना
जिस तरह है .
.मैं हरगिज़ मिटा देता वो  रिश्ता  
तुम्हारे इस हुनर को   सीख ना पाया कभी मैं 
मुझे अफ़सोस ये है ..
तुम्हारा साथ भी जाया  किया मैंने

बे-बदन हो चुके  तमाम
रूहानी रिश्तों को सच में
मैं जिंदा किये हूँ

और जिन्हें  मैं ही  भोगता हूँ
 
सुमति  

Wednesday, July 11, 2012

रात के इस  पहर अकेला है  
कश्तियाँ ले चलो समुन्दर में 
चाँद को रौंद  कर  के आते हैं 
आसमां ताकते तो उमर गुजरी


सुमति


हर लिहाज से उम्दा  तू  मुझ से ठहरेगा 
फिर बता बीच  हमारे ये सिलसिला क्या है 
सुमति 




मेरी हस्ती के मिटने का सबब
 बनके जो आ जाओ कहीं भूले से ..

हर एक शाम मैं ने यूँ ही गुज़री है 
बे पुख्ता सी उमीद के साथ  

सुमति 



मुझे हर शाम 
ये एहसास घेर लेता है 
कि तमाम सर्द अंधेरों में पिन्हा
मेरा मुस्तकबिल
 काँप उठेगा जो कहेगा कोई
 कि
 तुम ने याद किया है मुझ को 

सुमति 



Friday, July 6, 2012

maslhat ka ye taqaza hai bhula do hum ko

  गम ए हयात का झगडा मिटा रहा है कोई 
  चले भी आओ की दुनिया से जा रहा है कोई 

  अज़ल से कह दो कि रुक जाये दो घड़ी के लियें,
         सुना है आने का वादा निभा रहा है कोई 
                                                                            
     वो इस नाज़ से बैठे हैं मेरी लाश के पास 
     जैसे रूठे हुए को मना रहा है कोई 
                                                                        
     पलट के आ न जाएँ मेरी साँसें 
   हसीं हांथों से मईयत सजा रहा है कोई 

Wednesday, June 27, 2012

कहाँ से दिन गुजरा किधर को रात गयी .
.......बहुत मुश्किल से अपनी बात गयी ..
कभी सकूँ की शक्ल देखी  होती तो शायद उसे पकड़ कर या उसके 
पैर पकड़ का बैठ  गए होते


हर रात कुछ सिक्कों को गिन के  सोता हूँ 
हर एक रात कुछ रिश्तों  को खो के रोता हूँ 




सुमति 







































































































































































































































































Monday, January 30, 2012

तुम्हारे बिन

ये दिन
दरख्तों की तरह ,
हिलते नहीं मुझ से     
ये घड़ियाँ भी 
तुम्हारे बिन 
ठहर जाने की जिद मे हैं 

फलक पर रात भर तारे
तुम्हारी बात करते हैं 

उनकी फुसफुसाहट ही  
मुझे सोने नहीं देते 

मैं हर पल में परेशां हूँ 
परेशां है हर एक लम्हां 

 वहीँ पर है जहाँ पर थी
तुम्हारे बिन कज़ा मेरी

बुलालूं पास उसको या कि
उस तक दौड़ कर पहुंचूं 

मगर बेहिस दरख्तों कि तरह 
ये जिंदगी मेरी ...

    कि मुझ से तू नहीं मिलता
....कि मुझ से दिन नहीं हिलता  

सुमति